परिचय
मृदा भूख पर्वती की सबसे महत्वपूर्ण परत है तथा एक मूल्यवान संसाधन भी है हमारा अधिकतर भोजन और वस्त्र मिट्टी में उगने वाली भूमि आधारित फसलों से प्राप्त होता है दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम जिस मिट्टी पर निर्भर करते हैं उसका विकास हजारों वर्षों में होता है अपक्षय और क्रम के विभिन्न कारक जनक सामग्री पर कार्य करके मृदा की एक पतली परत का निर्माण करते हैं
मृदा की परिभाषा
मृदा बराबर सर मलवा और जो सामग्री का सम्मिश्रण होती है जो पृथ्वी की सतह पर विकसित होते हैं
मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक
मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं
1 | उच्चावच |
2 | जलवायु |
3 | जनक सामग्री |
4 | वनस्पति अन्य जीव रूप तथा समय |
इसके अतिरिक्त मानवीय क्रियाएं भी पर्याप्त सीमा तक इसे प्रभावित करती है|
मृदा के घटक निम्न प्रकार से हैं –
- खनिज
- ह्यूमस
- जल तथा वायु
इनमें से प्रत्येक की वास्तविक मात्रा मृदा के प्रकार पर निर्भर करती है कुछ मृदाओ में इनमें से एक या अधिक घटक कम मात्रा में होते हैं जबकि अन्य कुछ मृदाओं में इन घटकों का संयोजन भिन्न प्रकार का पाया जाता है
विशेष्य
यदि हम भूमि पर एक गड्ढा खोदे और मृदा को देखें तो वहां हमें मृदा की तीन परतें दिखाई देती है जिन्हें संस्तर कहते है
‘क’ संस्तर ऊपरी खंड होता है जहां पौधों की वृद्धि के लिए अनिवार्य जैव पदार्थों का खनिज पदार्थ पोषक तत्वों तथा जल से संयोग होता है
‘ख’ संस्तर ‘क’ संस्तर तथा ‘ग’ संस्तर के बीच संक्रमण खंड होता है इसमें ऊपर व नीचे दोनों से पदार्थ प्राप्त होते हैं इसमें कुछ जैव पदार्थ होते हैं तथापि खनिज पदार्थ का अपक्षय स्पष्ट नजर आता है
‘ग’ संस्तर की रचना ढीली जनक सामग्री से होती है यह परत मृदा निर्माण की प्रक्रिया में प्रथम अवस्था होती है और अंततः पूर्वी की दो परतें इसी से बनती है परसों की इस व्यवस्था को मृदा परिच्छेदिका कहा जाता है
इन तीन संस्तर के नीचे एक चट्टान होती है जिसे जनक चट्टान अथवा आधारी चट्टान कहा जाता है मृदा जिसका एक जटिल अथवा भिन्न अस्तित्व है सदैव वैज्ञानिकों को आकर्षित करती रही है इसके महत्व को समझने के लिए वैधानिक अध्ययन किया जाए मृदा का वर्गीकरण इसी लक्ष्य को प्राप्त करने का एक प्रयास है
मृदा का वर्गीकरण
भारत में विभिन्न प्रकार की भू-आकृति जलवायु परिमंडल व वनस्पतियां पाई जाती है जिन्होंने भारत में अनेक प्रकार की मिट्टियों के विकास में योगदान दिया है
- प्राचीन काल में मृदा को दो मुख्य वर्गों में बांटा जाता था जो उपजाऊ थी तथा ऊसर जो अनुउर्वर थी
उत्पत्ति रंग संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मिट्टियों को निम्नलिखित प्रकारों में बांटा गया है-
- जलोढ़ मृदा
- काली मृदा
- लाल पीली मृदा
- लेटराइट मृदा
- शुष्क मृदा
- लवण मृदा
- पीटमय मृदा
- वन मृदा
मृदा का विवरण व क्षेत्र
जलोढ़ मृदा
जलोढ़ मृदाएँ उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पाई जाती हैं यह मृदाएँ देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 40% भाग को ढके हुए हैं यह निक्षेपण मृदाएँ हैं जिन्हें नदियों और सरिताओं ने वाहित निक्षेपित किया है जो राजस्थान के एक संकीर्ण गलियारे से लेकर गुजरात के मैदान में फैली हुई हैं जलोढ़ मृदा के गठन में बलुई दोमट से चिकनी मिट्टी की प्रकृति की पाई जाती हैं सामान्यतः इन में पोटाश की मात्रा अधिक में फास्फोरस की मात्रा कम पाई जाती है
गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में निक्षेपित नई जलोढ़ को खादर कहते हैं जो महीन गाद होने के कारण मृदा की उर्वरता बड़ाती है
तथा पुरानी जलोढ़ मृदा को बांगर कहा जाता है जिसका जमाव बाढ़ कृत मैदान से दूर होता है इनमें कंकड़ पाए जाते हैं जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के घुसर से राख जैसा होता है इसका रंग निक्षेपण की गहराई जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाले समय पर निर्भर करता है जलोढ़ मृदाओं पर ऊपर गहन कृषि की जाती है
काली मृदा है
काली मृदाएँ में दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पाई जाती है इसमें गुजरात के कुछ भाग महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भाग और दक्कन के पठार के उत्तरी – पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पाई जाती हैं इन्हें रेगर मृदा या कपास वाली काली मृदा भी कहा जाता है यह मृदा गीली होने पर फूल जाती है और चिपचिपी हो जाती हैं सूखने पर यह सिकुड़ जाती हैं इस प्रकार शुष्क ऋतु में इनमें दरारें पड़ जाती हैं नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लंबी अवधि तक नमी बनी रहती है इसके कारण फसलों को विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में भी नमी मिलती रहती है और भी फलती फूलती रहती है रासायनिक दृष्टि से काली मृदाओं में चूने ,लौह , मैग़्नीशिय तथा एलुमिना के तत्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं इन में पोटाश की मात्रा भी पाई जाती है लेकिन नाइट्रोजन फास्फोरस व जैव पदार्थों की कमी होती है इस मृदा का रंग गाड़े काले रंग का और सलेटी रंग के बीच विभिन्न अभावों का होता है
लाल और पीली मृदाएँ
लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है जहां रवेदार आग़्नेय चट्टाने पाई जाती हैं पीली और लाल मृदा ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पाई जाती है इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखाई पड़ती है महीना कणो वाली लाल व पीली मृदा सामान्यतः उर्वर होती है इसके विपरीत मोटे कणों वाली अनुर्वर होती है इनमें सामान्यतः नाइट्रोजन फास्फोरस और ह्यूमस, की कमी होती हैं |
लेटराइट मर्दा
लेटराइट एक लैटिन शब्द ‘लेटर’ से बना है जिसका अर्थ ईट होता है यह मृदाएँ उच्च तापमान में भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं यह मृदा उष्णकटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम है वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एलुमिनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएँ शेष रह जाती हैं उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु ह्यूमस की मात्रा को तेजी से नष्ट कर देते हैं इन मृदाओं में जैव पदार्थ नाइट्रोजन, फास्फोरस और कैल्शियम की कमी होती है तथा लोहे ऑक्साइड और पोटाश की अधिकता होती है यह मृदाएँ कृषि के लिए उपजाऊ नहीं होती है इन्हें उपजाऊ बनाने के लिए इनमें खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है लेटराइट मृदाओं का उपयोग ईट बनाने में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लेटराइट मृदा अधिक उपयुक्त है यह मृदाएँ सामान्यतः कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश तथा उड़ीसा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती है
शुष्क मृदा है
शुष्क मृदाओं का रंग लाल से लेकर किशमिश तक का होता है यह सामान्यतः संरचना से बलुई और प्रकृति से लवणीय होती है कुछ जगहों पर नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है शुष्क जलवायु और तीव्र गति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फास्फेट सामान्य मात्रा में होती है नीचे की ओर चूने की मात्रा बढ़ने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ की परते पाई जाती हैं तली में कंकड की परत बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित होता है जिससे सामान्य सिंचाई पर भी पौधों में नमी बनी रहती है ये मृदाएँ विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलाक्षणिक रूप से विकसित हुई है ये मृदाएँ उपजाऊ नहीं हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस व जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं
लवण मृदा
ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदा भी कहते हैं इन मृदाओं में सोडियम पोटेशियम मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है अतः यह अनुर्वर होती है मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें की मात्रा बढ़ती है ये मृदाएँ शुष्क और अर्धशुष्क तथा जलाक्रांत क्षेत्रों में और अनुपों में पाई जाती हैं इनकी संरचना बलुई से लेकर दुमती तक होती हैं इनमें नाइट्रोजन व चूने की कमी होती है लवण मृदाओं का अधिकतम प्रसार गुजरात पूर्वी तट के डेल्टा व पश्चिमी बंगाल के सुंदरबन क्षेत्रों में है कच्छ के रन में दक्षिणी- पश्चिमी मानसून के साथ नमक के कण आते हैं जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं डेल्टा प्रदेशों में समुद्री जल के भर जाने से लवण मृदाओं को बढ़ावा मिलता है इस प्रकार के क्षेत्रों में विशेष रूप से पंजाब में हरियाणा में मृदा की लवणता की समस्या से निपटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है
पिटमय मृदाए
ये मृदाएँ भारी वर्षा और उच्च आद्रता से युक्त उन क्षेत्रों में पाई जाती है जहाँ वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं जो मृदा को ह्यूमस और पर्याप्त मात्रा में जैव तत्व प्रदान करते हैं इनमें जैव पदार्थों की मात्रा 40% से 50% तक होती है ये मृदाएँ सामान्यतः काले रंग की होती है यह मृदाएँ अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग उत्तरांचल के दक्षिणी भाग पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों उड़ीसा और तमिलनाडु में पाई जाती है
वन मृदाएँ
वन मृदाएँ में पर्याप्त वर्षा वाले वन क्षेत्रों में बनती हैं इनका निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है तथा पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन में व संरचना बदलती रहती है घाटीयों में यह दुमटी व पांशु होती है तथा ऊपरी ढालो पर यह मोटे करने वाली होती है हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इनका अनाच्छादन होता रहता है और यह अम्लीय व कम ह्यूमस वाली होती है निचली घाटयों में पाई जाने वाली मृदा उर्वर होते हैं जिस पर कृषि की जा सकती है